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योद्धा सन्यासी का युग संदेश जो आज और भी अधिक प्रासंगिक है


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युवाओं के चिरप्रेरक, भारतीय संस्कृति के अग्रदूत, विश्वधर्म के उद्घोषक, व्यावहारिक वेदांत के प्रणेता, वैज्ञानिक अध्यात्म के भविष्यद्रष्टा युगनायक स्वामी विवेकानंद को शरीर त्यागे सौ वर्ष से अधिक समय हो गया है, लेकिन उनका हिमालय-सा उत्तुंग व्यक्तित्व आज भी युगाकाश पर जाज्वल्यमान सूर्य की भाँति प्रकाशमान है। उनका जीवन दर्शन आज भी उतना ही उत्प्रेरक एवं प्रभावी है, जितना सौ वर्ष पूर्व था; बल्कि उससे भी अधिक प्रासंगिक बन गया है।


तब राजनीतिक पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ी माँ भारती की दीन-दुर्बल संतानों को इस योद्धा संन्यासी की हुंकार ने अपनी कालजयी संस्कृति की गौरव-गरिमा से परिचय कराया था। विश्वमंच पर भारतीय धर्म एवं संस्कृति के सार्वभौम संदेश की दिग्-दिगंतव्यापी गर्जना से विश्वमनीषा चमत्कृत हो उठी थी।


आज हम राजनीतिक रूप से स्वतंत्र होते हुए भी बौद्धिक, नैतिक एवं सांस्कृतिक रूप से गुलाम हैं। देश भौतिक-आर्थिक रूप से प्रगति कर रहा है। समृद्ध होते एक बड़े वर्ग की खुशहाली को देखकर इसका आभास होता है और उभरती आर्थिक शक्ति के रूप में इसका वैश्विक आकलन और यहाँ की प्रतिभाओं का वर्चस् भी हमें आश्वस्त करता है, लेकिन प्रगतिशील इंडिया और आम इनसान के गरीब भारत के बीच विषमता की जो खाई मौजूद है, उसे पाटे बिना देश की समग्र प्रगति की तस्वीर अधूरी ही रहेगी।


बौद्धिक एवं सांस्कृतिक पराधीनता से मुक्त युवा शक्ति ही उस स्वप्न को साकार कर पाएगी। इसके लिए आध्यात्मिक उत्क्रांति की जरूरत है। स्वामी जी का जीवन अपने प्रचंड प्रेरणा प्रवाह के साथ युवाओं को इस पथ पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। हर युग में स्वामी जी के वाक्यों को मंत्रवत् ग्रहण करते हुए कितने ही युवा अपना जीवन व्यापक जनहित एवं सेवा में अर्पित करते रहे हैं। अनेक युवा उनके सम्मोहन में बँधकर आदर्शोन्मुखो जीवनधारा की ओर मुड़ रहे हैं।

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स्वामी जी के शब्दों में सबसे पहले हमें स्वस्थ एवं बलिष्ठ शरीर की जरूरत है व बाकी चीजें बाद में आवश्यक हैं। वे तो यहाँ तक कहते थे कि तुम फुटबाल खेलने से मजबूत हुए शरीर के साथ गीता को ज्यादा बेहतर ढंग से समझ पाओगे। दुर्बल और रुग्ण शरीरवाला अध्यात्म के मर्म को क्या समझ पाएगा। अतः युवाओं को लोहे की मांसपेशियों के की जरूरत है और साथ ही ऐसी नस-नाड़ियों की, जो फौलाद की बनी हों।


स्वामी विवेकानंद कहते थे कि शरीर के साथ नस नाड़ियों के फौलादीपन से तात्पर्य मनोबल, आत्मबल से है, जो चरित्र का बल है। बिना इंद्रियसंयम के भला यह कैसे संभव है? साथ ही चाहिए ध्येयनिष्ठा ऐसा महान संकल्प, जिसे कोई भी बाधा रोक न सके। जो अपने लक्ष्यसंधान हेतु ब्रह्मांड के बड़े-से-बड़े रहस्य का भेदन करने के लिए तत्पर हो, चाहे इसके निमित्त सागर की गहराइयों में ही क्यों न उतरना पड़े और मृत्यु का सामना ही क्यों न करना पड़े। इसके लिए स्वधर्म के बोध पर स्वामी जी बल देते हैं।


धर्म का सार दो शब्दों में समाहित करते हुए स्वामी जी कहते हैं- पवित्रता एवं अच्छाई। साथ ही वे यह भी सचेत करते हैं कि सच्चाई एवं अच्छाई का रास्ता विश्व का सबसे फिसलन भरा एवं कठिन मार्ग है। आश्चर्य नहीं कि कितने सारे लोग इसके रास्ते में ही फिसल जाते हैं, बहक भटक जाते हैं और कुछ मुट्ठीभर इसके पार चले जाते हैं। अपने उच्चतम ध्येय के प्रति मृत्युपर्यंत निष्ठा ही चरित्रबल एवं अजेय शक्ति को जन्म देती है। यह शक्ति निस्संदेह सत्य की होती है।


यही सत्य संकटों में, विषमताओं में प्रतिकूलताओं में रक्षाकवच बनकर दैवी संरक्षण देता है। इसके समक्ष धन, ऐश्वर्य, सत्ता यहाँ तक की समस्त विद्याएँ एवं सिद्धियाँ तुच्छ हैं। तीनों लोकों का वैभव भी इसके सामने कुछ नहीं। चरित्र की शक्ति अजेय है, अपराजेय है, लेकिन यह एक दिन में विकसित नहीं होता। हजारों ठोकरों को खाते हुए इसका गठन करना होता है। जब यह विकसित हो जाता है तो एक व्यक्ति में पूरे विश्व-ब्रह्मांड के विरोध का सामना करने की शक्ति- सामर्थ्य पूर्ण प्रवाह से आ जाती है।


आज जरूरत ऐसे ही चरित्रनिष्ठ युवाओं की है। स्वामी जी सिंहगर्जना करते हुए कहते हैं कि मुझे ऐसे मुट्ठी भर भी युवक-युवतियाँ मिल जाएँ तो मैं समूचे विश्व को हिला दूं। ऐसे पवित्र और निस्स्वार्थ युवा ही किसी राष्ट्र की सच्ची संपत्ति हैं। आदर्श के प्रति समर्पित आत्मबलिदानी युवाओं की आज जरूरत है, जो लक्ष्यहित-हेतु बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए तैयार हों।

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'मेरा जीवन एवं ध्येय' उद्बोधन में स्वामी विवेकानंद अपनी किशोरावस्था की ऊहापोह का मार्मिक चित्रण करते हुए कहते हैं-"युवावस्था में मैं भी निर्णायक मोड़ पर था, जब मैं महीनों निर्णय नहीं कर पा रहा था कि सांसारिक जीवनयापन करूँ या गुरु के बताए मार्ग पर चलूँ। अंत में निर्णय गुरु के पक्ष में गया, जिसमें कि राष्ट्र एवं व्यापक विश्वमानव का हित निहित था और मैंने क्षुद्र जीवन की अपेक्षा विराट ध्येय के लिए अर्पित जीवन के पक्ष में निर्णय लिया। निस्संदेह महान कार्य महान त्याग की माँग करते हैं। खून से लथपथ हृदय को हाथ में लेकर चलना पड़ता है, तब जाकर कहीं महान कार्य सिद्ध होते हैं। बिना त्याग के किसी बड़े कार्य की आशा नहीं की जा सकती।"


एक सफल जीवन का मर्म स्पष्ट करते हुए स्वामी जी मार्गदर्शन करते हैं-" जीवन में किसी एक आदर्श का होना अनिवार्य है। इसी आदर्श को जीवनलक्ष्य बना दें। इस पर विचार करें, इसका स्वप्न लें, उसे अपने रोम-रोम में समाहित कर लें । जीवन का हर पल इससे ओत-प्रोत रहे हर क्षण उसके महान विचारों में निमग्न रहें व इस पावन ध्येय का सुमिरन करते रहें। इसी के गर्भ से महान कार्य प्रस्फुटित होंगे। हमें गहराई में उतरना होगा, तभी हम जीवन का कुछ सार तत्त्व पा सकेंगे व जग का कुछ भला कर पाएँगे।


"इसके लिए हमें पहले स्वयं पर विश्वास करना होगा, फिर भगवान एवं दूसरों पर अच्छाई के मार्ग पर किसी से कोई उम्मीद न रखें। अपने विश्वास पर दृढ़ रहें, बाकी सब अपने आप ठीक होता जाएगा। तुम देखोगे कि कैसे विश्व तुम्हारा अनुकरण करता है, लेकिन शुरुआत विरोध से होगी। कठिन परीक्षाओं से गुजरते हुए तुम्हें अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करनी होगी। इसके उपरांत ही तुम्हारे नेक । इरादों को स्वीकृति मिलेगी।


"स्वधर्म के साथ युगधर्म का बोध भी आवश्यक है। अपने कल्याण के साथ राष्ट्र, पीड़ित मानवता की सेवा जीवन का अभिन्न अंग बने। ऐसा धर्म किस काम का, जो भूखों का पेट न भर सके। शिवभावे जीव सेवा का आदर्श प्रस्तुत करना होगा। अगले 100 वर्षों तक हमें किसी भगवान की जरूरत नहीं है। गरीब, पीड़ित, शोषित, अज्ञानग्रस्त, पिछड़ा समुदाय ही तुम्हारा भगवान है। लानत है ऐसे शिक्षितों पर जो उनके आँसू न पाँछ सकें, जिनके बल पर इस जीवन की दक्षता को हम अर्जित करते हैं।


"ऐसी विषम परिस्थिति में उम्मीद है उन युवाओं से जो कुछ भी नहीं हैं | जिनकी एकमात्र पूंजी है-भाव संवेदना तथा आदर्श प्रेम और जो त्याग व सेवा के पथ पर बढ़ने के लिए तत्पर हैं। ऐसे समर्पित युवा ही ईश्वरीय योजना का माध्यम बनेंगे। उन्हें वह सूझ व शक्ति मिलेगी कि वे कुछ सार्थक कार्य कर सकें। वे ही अपने उच्च चरित्र, सेवाभाव और विनय द्वारा देश, समाज एवं विश्व का कुछ भला कर सकेंगे। मेरा आशीर्वाद ऐसे युवाओं के साथ है। जब मेरा शरीर न रहेगा तो मेरी आत्मा उनके साथ काम करेगी।" स्वामी विवेकानंद द्वारा वर्षों पूर्व कहे गए ये शब्द आज भी एक आवाहन के रूप में महसूस किए जा सकते हैं।



जनवरी, 2022 अखण्ड ज्योति

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