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महाविष है क्रोध


'क्रोध' मनुष्य को मदिरा की भाँति विचारशून्य एवं पक्षाघात की भाँति शक्तिहीन कर देता है। वाल्मीकि ऋषि ने रामायण में कहा है कि 'क्रोध' प्राणों को लेने वाला शत्रु है और सर्वनाश की ओर ले जाने वाली राह है। क्रोध एक भयानक विष है। जीवन में सब कुछ हमारे मनमुताबिक नहीं होता है और अवांछित आकस्मिक व्यवसाय हानि, अपमान अथवा किसी की अस्वीकृति हमें क्रोधित कर बैठती है।


क्रोध में हम विवेक गँवाकर भयंकर अपराध कर बैठते हैं। उत्तेजना में आकर व्यक्ति हत्या आत्महत्या और खून-खराबा तक कर बैठता है। क्रोध हत्यारा है, हिंसक है, क्रूर है- यह व्यक्ति को हत्यारा तक बना देता है। व्यक्ति का भविष्य बिगाड़ देता है। एक पल भर का क्रोध जिंदगी भर के लिए अभिशाप बन जाता है। क्रोध में दया नहीं होती है, करुणा नहीं होती है। क्रोध सृजन नहीं, विध्वंस करता है। क्रोध विष है, क्रोध एक असंतुलन है, क्रोध एक मनोविकार है, क्रोध पागलपन है, क्रोध नरक का द्वार है।


गीता में क्रोध का कारण कामना में बाधा पड़ना कहा गया है। हमारा मनचाहा हो यह कामना है जब इसमें रुकावट आती है, व्यवधान आता है तो क्रोध आता है। मुस्कराता चेहरा सभी को पसंद है व प्रभावित करता है। मनुष्य चाहे कितना ही धनी, विद्वान तथा उच्च पद पर आसीन क्यों न हो, किंतु उसका व्यवहार मधुर व नम्रता से युक्त न हो तो उसे सभ्य नहीं माना जाता है। यदि वह बात बात में क्रोध करे, आवेश में व आक्रोश में आए, झल्लाए तथा अहंकार के कारण अपने अधीनस्थ लोगों को छोटी- छोटी मामूली बातों पर फटकारे व प्रताड़ित करे तो लोग उससे प्रसन्न नहीं रहते हैं, अपितु वह निंदा का पात्र बनता है। उसका व्यवसाय व कारोबार प्रभावित होता है तथा लोग मन-ही-मन उसके अमंगल की कामना करते हैं।


क्रोध से जीवन के हर क्षेत्र में हानि व नुकसान उठाना पड़ता है। प्रज्ञापुरुषों, दार्शनिकों, मनोवैज्ञानिकों, चिकित्सकों, शरीरशास्त्रियों द्वारा विभिन्न माध्यमों से ये ही बताया गया है। आयुर्वेद क्रोध को अनेक बीमारियों का जनक मानता है। क्रोध की स्थिति में व्यक्ति की विवेकशीलता घट जाती है। उस समय पित्त का प्रकोप अधिक हो जाता है। मुँह और आँखें लाल हो जाती हैं। शरीर तन जाता है। ओंठ काँपने लगते हैं। मुट्ठियाँ बँध जाती हैं। गला सूखने लगता है एवं रक्तचाप बढ़ जाता है।


क्रोध का आवेश चढ़ने पर व्यक्ति अर्द्धविक्षिप्त जैसी स्थिति में जा पहुँचता है। उसकी निर्णय क्षमता, व्यवहार सब कुछ विचित्र हो जाते हैं। क्रोध का आवेश जिस पर चढ़ रहा हो उसकी गतिविधियों पर ध्यानपूर्वक दृष्टि डाली जाए तो पता चलेगा कि पागलपन में अब कुछ थोड़ी ही कसर रह गई है। अधिक क्रोध आने पर मस्तिष्कीय द्रव उबलने लगता है और यदि उसे ठंढा न किया जाए तो मानसिक रोगों से लेकर हत्या या आत्महत्या जैसे क्रूर कार्य कर बैठने जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। गुस्से में तमतमाया चेहरा विकृत बन जाता है।


आँखें, ओंठ, नाक इत्यादि पर गुस्से के भाव प्रत्यक्ष दिखते हैं। मुँह से अशिष्ट व अमर्यादित शब्दों का उच्चारण होने लगता है। रक्त प्रवाह की तेजी से शरीर जलने लगता है। हाथ-पैर काँपते हैं तथा ऐसे में रोएँ तक खड़े होते देखे गए हैं। क्रोध के कारण उत्पन्न होने वाली विषाक्त शर्करा पाचनशक्ति के लिए सबसे खतरनाक है। यह रक्त को विकृत कर शरीर में पीलापन, नसों में तनाव, कटिशूल आदि पैदा करती है। आयुर्वेद के अनुसार-क्रोध की अवस्था में माँ का दूध पीने से बच्चे के पेट में मरोड़ होने लगती है और हमेशा क्रोधित रहने वाली माँ का दूध कभी-कभी तो इतना विषाक्त हो जाता है कि बच्चे को जीर्ण रोग तक हो जाता है।



प्रसिद्ध चिकित्साशास्त्री डॉ० जे० एस्टर का कथन है-" 15 मिनट का क्रोध व्यक्ति के साढ़े नौ घंटे के श्रम के बराबर शक्ति को नष्ट कर देता है। क्षण भर के क्रोध से 1600 आर० बी० सी० जल जाती हैं, जबकि समता भाव से केवल 1400 आर० बी० सी० बनती क्रोध के समान कोई पाप नहीं है और क्रोध के समान कोई शत्रु नहीं है। क्रोध अनर्थों का मूल है। इस प्रकार क्रोध वर्जित है। महाभारत में क्रोध को चांडाल कहते हुए कहा गया है- "जो मुनि क्रोध करता है, वह चांडाल से भी बढ़कर है। क्रोध से व्यक्ति कृत्य-अकृत्य के विवेक से विहीन हो जाता है। क्रोध उसके विवेक को नष्ट कर देता है।" एक पाश्चात्य विद्वान ऐंगल सोल ने भी क्रोध से हानि के संबंध में कहा है-"क्रोध मन के दीपक को बुझा देता है। क्रोध में व्यक्ति को बोलने का भान नहीं रहता है। वह अमर्यादित बोलता है, अपशब्द बोलता है। क्रोधावेश में व्यक्ति आँखें बंद कर लेता है और मुँह खोल देता है।"


क्रोध को दूर करने के उपाय के संबंध में भगवान महावीर ने कहा है-"शुभ कार्य करना है तो उसमें क्षण मात्र का भी प्रमाद नहीं करना चाहिए, यदि अशुभ कार्य है तो उसमें अधिकाधिक विलंब करो, ताकि उसको करने की संभावना समूल नष्ट हो जाए।" क्रोध के आते ही हम मौन धारण कर लें। अपने मन में गिनती शुरू कर सौ तक बोलें। क्रोध परिस्थितिजन्य होता है; अतः हमें चाहिए कि हम उन परिस्थितियों को जाँचें-परखें व उन्हें दूर करने का प्रयास करें; जिनसे क्रोध उत्पन्न होता है। अपने क्रोध को हमें सदा संयमित एवं नियंत्रित करना चाहिए।



-पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

दिसंबर, 2021 अखण्ड ज्योति

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