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पूजा और उपासना

किसी व्यक्ति की उपासना सच्ची है या झूठी है उसकी एक ही परीक्षा है कि साधक की अन्तरात्मा में सन्तोष, प्रफुल्लता, आशा, विश्वास और सद्भावना का कितनी मात्रा में अवतरण हुआ। यदि यह गुण नहीं आये हैं और हीन वृत्तियाँ उसे घेरे हुए हैं तो समझना चाहिए कि वह व्यक्ति पूजा पाठ कितना ही करता हो उपासना से अभी दूर ही है।

पूजा पाठ अलग बात है, उपासना अलग। उपासना के लिए पूजा पाठ से, कर्मकाण्ड की चिन्हपूजा करते रहने मात्र से उपासना का उद्देश्य प्राप्त नहीं हो सकता। जीव को जीवन धारण करने के लिये शरीर की आवश्यकता होती है पर शरीर ही जीवन नहीं है। जीव विहीन शरीर देखा तो जा सकता है पर उसका कोई लाभ नहीं। इसी प्रकार उपासना विहीन पूजा भी होती तो है पर उससे कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।


आत्मा जब परमात्मा की गोदी में बैठता है तो उसे प्रभु की सहज करुणा और अनुकम्पा का लाभ मिलता है। उसे तुरन्त ही निर्भयता और निश्चिन्तता की प्राप्ति होती है। हानि, घाटा, रोग, शोक, विछोह, चिन्ता, असफलता और विरोध की विपन्न स्थितियों में भी उसे विचलित होने की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसे इन प्रतिकूलताओं में भी अपने हित साधन का कोई विधान छिपा दिखाई पड़ता है। वस्तुतः विपन्नता हमारी त्रुटियों का शोधन करने और पुरुषार्थ को बढ़ाने के लिए ही आती है। आलस्य और प्रमाद को, अहंकार और मत्सर को मनोभूमि से हटाना ही प्रतिकूलताओं का उद्देश्य होता है। सच्चे आस्तिक को अपने प्रिय परमेश्वर पर सच्ची आस्था होती है और वह अनुकूलताओं की तरह प्रतिकूलताओं का भी खुले हृदय से स्वागत करता है।



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