top of page
Post: Blog2_Post

जीवन में हास्य की उपयोगिता


अंगरेजी में किसी विद्वान का कथन है-"मैन इज ए लाफिंग एनीमल" अर्थात मनुष्य एक हँसने वाला प्राणी है। मनुष्य और अन्य पशुओं के बीच भिन्नता सूचित करने वाले-बुद्धि, विवेक तथा सामाजिकता आदि जहाँ अनेक लक्षण हैं, वहाँ एक हास्य भी है। पशुओं को कभी हँसते नहीं देखा गया है। यह सौभाग्य, यह नैसर्गिक अधिकार एकमात्र मनुष्य को ही प्राप्त हुआ है। जिस मनुष्य में हँसने का स्वभाव नहीं, उसमें पशुओं का एक बड़ा लक्षण मौजूद है, ऐसा मानना होगा।


संसार में असंख्यों प्रकार के मनुष्य हैं। उनके रहन-सहन, आहार- विहार, विश्वास-आस्था, आचार-विचार, प्रथा-परंपरा, भाषा-भाव एवं स्वभावगत विशेषताओं में भिन्नता पाई जा सकती है, किंतु एक विशेषता में संसार के सारे मनुष्य एक हैं। वह विशेषता है-'हास्य'। काले-गोरे, लाल-पीले, पढ़े-बेपढ़े, नाटे-लंबे, सुंदर-असुंदर का भेद होने पर भी उनको भिन्नता के बीच हँसी की वृत्ति सबमें समभाव से विद्यमान है।


प्रसिद्ध विद्वान मैलकम ने एक स्थान पर दुःख प्रकट करते हुए कहा है-"संसार में आज हँसी की सबसे अधिक आवश्यकता है, किंतु दु:ख है कि दुनिया में उसका अभाव होता जा रहा है।" कहना न होगा कि श्री मैलकम का यह कथन बहुत महत्त्व रखता है और उनका हँसी के अभाव पर दुखी होना उचित ही है। देखने को तो देखा जाता है कि आज भी लोग हँसते हैं, वह उनकी व्यक्तिगत हँसी होती है, किंतु सामाजिक तथा सामूहिक हँसी दुनिया से उठती चली जा रही है। उसके स्थान पर एक अनावश्यक, एक कृत्रिम गंभीरता लोगों में बढ़ती जा रही है।


ऐसा करने में उनका विचार होता है कि लोग उनको गहन, गंभीर और उत्तरदायी व्यक्ति समझकर आदर करेंगे, समाज में उनका वजन बढ़ेगा। यह बात सही है कि गंभीरता जीवन में वांछित गुण है, किंतु यह ठीक तभी है, जब आवश्यकतानुसार हो और यथार्थ हो। नकली गंभीरता से आदर होना दूर लोग मातमी सूरत देखकर उलटा उपहास ही करते हैं। गंभीरता के नाम पर हर समय मुँह लटकाए, गाल फुलाए, माथे में बल और आँखों में भारीपन भरे रहने वाले व्यक्तियों को समाज में बहुत कम पसंद किया जाता है। वे एक बंद पुस्तक की भाँति लोगों के लिए संदेह तथा संदिग्धता के विषय बने रहते हैं।


आज लोग अपनी गंभीरता तथा उदासी का कारण उत्तरदायित्व एवं चिंता बतलाते हैं। कहते हैं-"ढेरों की ढेर चिंताएँ सिर पर सवार हैं, जिम्मेदारियाँ पीसे डाल रही हैं, कैसे हँसें और कैसे खुश रहें ?" किंतु वे यह नहीं सोचते कि उदास और विषण्ण रहने से चिंताएँ और प्रबल तथा उत्तरदायित्व और बोझिल हो जाता है। जबकि हंसने और प्रसन्न रहने से उनका बोझ हलका मालूम होता है, उन्हें वहन कर सकने की शक्ति में वृद्धि होती है। एक बार एक विदेशी ने महात्मा गांधी की विनोदप्रियता के विषय में प्रश्न किया तो बापू ने बताया- "यदि मुझमें विनोदप्रियता की वृत्ति न होती तो मैं चिंताओं के भार से दबकर कभी का मर गया होता। यह मेरी विनोदप्रियता ही है जो मुझे चिंताओं में घुलने से बचाए रखती है।" इस प्रकार पता चलता है कि जिंदगी का उत्तरदायित्व वहन करने में हास-विनोद बहुत सहायक होता है। जो लोग विनोदी वृत्ति का बहिष्कार कर देते हैं, उनकी जिंदगी नीरस होकर निर्जीव हो जाती है। वे श्वासों से बंदी बने हुए ज्यों-त्यों दिन पूरे किया करते हैं।


जिसको हास-विनोद से रुचि नहीं, हर समय रोनी सूरत बनाए रहता है, उसका साथ देना लोग कम पसंद करते हैं। एक विचारक ने बताया है- अगर तुम हँसोगे तो सारी दुनिया तुम्हारे साथ हँसेगी और अगर तुम रोओगे तो कोई तुम्हारा साथ न देगा और इस प्रकार अकेले पड़ जाओगे।" जीवन को सामाजिक बनाने के लिए हास्य-विनोद की बडी आवश्यकता है। हास जीवन की कँटीली राह में सुंदर सुमनों की तरह है जो काँटों एवं कटुता का शमन कर देता है।


द्वेष का दावानल शमन करने के लिए हास एक अमोघ उपाय है। दो पुराने दुश्मन भी जब एक साथ किसी प्रसंग पर हंस पड़ते हैं तो उनके हृदय से द्वेष का विष बहुत कुछ कम हो जाता है। असफलताओं को हँसकर अंगीकार करने से उनका दुःख, क्षोभ कम हो जाता है। मनुष्य आगे के लिए हतोत्साहित नहीं होता। विद्वानों का मत है कि यदि लोग जी खोलकर हँसा करें, अपने सामाजिक एवं दैनिक व्यवहार में इसको अधिक स्थान दें तो समाज में फैली कटुता तथा असहयोग की भावना बहुत कुछ कम हो जाए। कड़ी से कड़ी बात को हँसकर टाल देने से बड़े से बड़े अनर्थों से बचाव हो जाता है। इसके विपरीत जब एक छोटी सी अप्रिय बात को गंभीरतापूर्वक लिया जाता है और उस पर आक्रोश के भाव से सोचा जाता है, तब यह बात इतनी गंभीर अनुभव होती है जितनी कि वह होती नहीं है। हास जहाँ कटु प्रसंगों को भी मधुर बना देता है, वहाँ अनावश्यक गंभीरता अथवा विषाद मीठी बात को भी कड़वी बना देते हैं। सुख-दुःख, द्वेष-प्रेम आदि सारी बातों को मुस्कान एवं प्रसन्नता के वातावरण में रखकर ही स्वीकार करना चाहिए।

हास्य से प्राप्त होने वाली जीवनी शक्ति का लाभ उठाने के लिए बड़े-बड़े चिकित्सालयों में रोगियों को हँसाने तथा प्रसन्न करने के लिए हास्य-विनोद की व्यवस्था रखी जाती है। मनोरंजन के माध्यम से अपराधियों के आचरण सुधार के प्रयोगों के परिणामों को आशाजनक बतलाया जा रहा है। मनोरंजन तथा विनोदप्रियता के साथ पढ़ाने वाले अध्यापक गंभीर तथा गुरुता से बोझिल अध्यापकों को अपेक्षा अधिक सफल पाए जाते हैं। इसलिए बच्चों को पढ़ाने की आधुनिक पद्धति मनोरंजन एवं विनोदपूर्ण व्यवस्था के आधार पर विकसित की जाती है। जो एक बात गंभीरता अथवा गुरुता के साथ किसी के मस्तिष्क में हजार बार कहकर नहीं बिठाई जा सकती, वह मुस्कराते हुए मधुर ढंग से एक बार में बिठाई जा सकती है।


हास, मुस्कान और विनोद में कितना सुख है, कितना आनंद है? इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि बड़े-बड़े लोग यहाँ तक कि राजा-महाराजा स्वाँग और नाटकों के रूप में अपने प्रति व्यंग्य-विनोद देख-सुनकर प्रसन्न ही नहीं होते हैं, बल्कि सफल अभिनेता को पुरस्कार तक दिया करते हैं। आज समाचारपत्रों में छपने वाले व्यंग्य-चित्र संसार के किस बड़े से बड़े आदमी का मजाक नहीं बनाते, छींटा-कशी नहीं करते? किंतु उनको देखकर सब हँस ही पड़ते हैं, रोष कोई भी नहीं करता। आध्यात्मिक क्षेत्र में तो हास्य एवं प्रसन्नता का महत्त्व अपरिमित है। योग को मन में स्थिर करने के उपायों में प्रसन्नता का प्रमुख स्थान है। हर समय प्रसन्न रहने से मन के मल तथा विक्षेप आदि विकार स्वयं दूर हो जाते हैं। आध्यात्मिक लाभ एक चिरस्थायी प्रसन्नता के रूप में ही प्राप्त होता है। जो लोग आध्यात्मिक क्षेत्र में गंभीरता, चिंतन, विचार एवं विवेचना को ही प्रधानता देते हैं, वे भूल करते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में हास्य एवं प्रसन्नता की ही प्राथमिकता है।


एक बार एक तरुण, एक महात्मा के पास बड़ी गंभीर मुद्रा के साथ पहुँचा और उनसे अध्यात्म ज्ञान देने की प्रार्थना करने लगा। उसका विचार था कि इस क्षेत्र में अधिक से अधिक गंभीरता अपेक्षित है। बुद्धिमान संत ने उसे देखा और कहा-"वत्स! बाजार से कोई विनोद-प्रधान अच्छी सी पुस्तक खरीद लाओ, उसे पढ़ा करो। तुम्हारे अध्यात्म का यही मार्ग उचित होगा।"


इस प्रकार देखा जा सकता है कि जीवन के हर क्षेत्र में हास्य का कितना महत्त्व है? निस्संदेह संसार के सभी व्यक्ति समान रूप से विनोदप्रिय बन जाएँ और जीवन में मुक्त एवं निश्छल हास्य की प्रतिस्थापना कर सकें तो दुनिया से राग द्वेष, दुःख-दारिद्रय तथा ईर्ष्या द्वेष को भागते देर न लगे।


जिंदगी हँसते-खेलते जिएँ

~पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

Comments


©2020 by DIYA (Youth wing of AWGP). 

bottom of page