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जीवन में आने वाले दुःख-सुख को धैर्य पूर्वक तटस्थ भाव से सहन करना चाहिए।


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आपत्तियों के आने पर घबराना नहीं चाहिए। मनुष्य धैर्य पूर्वक उनको हटाने का उपाय करने के बजाय अपनी सारी क्षमताओं को व्यग्र और विकल होकर नष्ट कर देता है। किंकर्तव्यविमूढ़ बनकर "क्या करें", "कहाँ जाएँ", "कैसे बचे?" आदि वितर्कना करते हुए बैठे रहते हैं, जिससे आई हुए विपत्ति भी सौ गुनी होकर उन्हें दबा लेती है। विपत्ति आने पर मनुष्य अपनी जितनी शक्ति को उद्विग्न और अशांत रहकर नष्ट कर देता है, उसका एक अंश भी यदि वह शान्त चित्त रहकर कष्टों को दूर करने में व्यय करे तो शीघ्र ही मुक्त हो सकता है। जीवन में जो भी दुःख-सुख आए, उसे धैर्यपूर्वक तटस्थ भाव से सहन करना चाहिए। क्या सुख और क्या दुख? दोनों को अपने ऊपर से ऐसे गुजर जाने देना चाहिए, जैसे वे कोई राहगीर हैं, जिनसे अपना कोई संबंध नहीं है। विपत्तियाँ आती है और चली जाती है, परिस्थितियाँ बदल जाती है। जो व्यक्ति इनका प्रभाव ग्रहण कर लेता है, वह मानसिक अशांति को आजीवन बनाए रहता है और ऐसे मनुष्य के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ प्रतिकूल फल ही उत्पन्न करती है। इस तरह न केवल दुःख अपितु सुख की अवस्था में भी वह दुःखी रहता है। मनुष्य की मानसिक शांति और बौद्धिक संतुलन, दो ऐसी अमोघ शक्तियाँ हैं, जिनके बल पर विकट से विकट परिस्थिति का भी सामना किया जा सकता है। जीवन को सुखी और संतुष्ट बनाए रखने के लिए मनुष्य को चाहिए कि प्रत्येक अवस्था में अपनी मानसिक शांति को भंग न होने दें, इसकी उपस्थिति में सुख और अभाव में दुःख की वृद्धि होती है।

(संकलित व संपादित)

- अखंड ज्योति जनवरी 1967 पृष्ठ 2

 
 
 

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