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एकाकी संकल्प की विलक्षण परिणति


संकल्प बल हो तो बड़े से बड़े पुरुषार्थ को पूर्ण कर पाना संभव हो पाता है। जिस पत्रिका को आज हम पढ़ रहे हैं। इसकी शुरुआत के पीछे भी एक ऐसे ही संकल्प बल की गाथा है, जिसे वर्तमान परिप्रेक्ष्य में स्मरण कर लेना आवश्यक हो जाता है। सन् 1940 में जब अखण्ड ज्योति का प्रथम अंक परमपूज्य गुरुदेव ने पुनः प्रकाशित किया तो उस पर उन्होंने यह स्पष्ट रूप से लिखा कि अखण्ड ज्योति पत्रिका का अगला अंक हर निश्चित तिथि पर ही छपाकर तैयार रख लेंगे और पाठकों की सेवा में भेजेंगे। बिना नंबर आए पत्रिका भेजने में तिगुना पोस्टेज लगेगा, इसलिए अगले अंक के लिए पूरी फरवरी की प्रतीक्षा करनी चाहिए। यदि फिर भी नंबर न आया तो 28 फरवरी को तिगुना पोस्टेज लगाकर भी अखण्ड ज्योति अवश्य भेजेंगे।'


यह कल्पना करनी भर भी मुश्किल है कि परमपूज्य गुरुदेव जिन्होंने परमवंदनीया माताजी के गहने व अपना सब कुछ बेचकर जिस किसी प्रकार अखण्ड ज्योति के प्रकाशन की व्यवस्था बनाई, वे सारे झंझावातों के मध्य भी पाठकों को दिए वचन से समझौता नहीं करना चाहते थे।


ऐसे अमानवीय संकल्प के धनी ही प्रतिकूल परिस्थितियों के मध्य एक ऐसे समय में जब भारत व विश्व की सारी गतिविधियाँ, गंभीर उथल-पुथल की थीं। ऐसे समय में अखण्ड ज्योति पत्रिका को, जो बिना किसी विज्ञापन के निकलती रही। घर-घर तक पहुंचा ही देंगे का वचन दे सकते थे। उन्होंने एकाकी संकल्प के बूते पत्राचार स्वाध्याय, लेखन- प्रकाशन-मुद्रण की संपूर्ण व्यवस्था, कागज इत्यादि का प्रबंध, रजिस्ट्रेशन नंबर इत्यादि की व्यवस्था उस समय में बनवा दी, जब ब्रिटिश हुकूमत सभी को गंभीर यातनाएँ दे रही थी और जरूरत की सामग्री भी आसानी से नहीं मिल पाती थी, उस पर भी उनके संकल्प का आलम यह था कि बिना किसी से संसाधनों की माँग किए बिना किसी प्रकार की वित्तीय सहायता लिए वे पत्रिका को प्रकाशित करेंगे ।


अखण्ड ज्योति को उन्होंने प्रारंभ के दिनों से ही आद्योपांत लिखा- इसके प्रथम से लेकर अंतिम पृष्ठ तक की सामग्री उन्हीं के द्वारा लिखी हुई होती थी, तब भी वे लेखकों के काल्पनिक नाम इसमें जोड़ दिया करते थे। जैसे-जैसे अखण्ड ज्योति पत्रिका लोगों के हृदयस्थल में विराजमान होती गई, वैसे-वैसे उन्होंने उसमें नाम देने का क्रम बंद कर दिया।


वैसे तो अखण्ड ज्योति की शुरुआत वसंत पंचमी 1940 से हुई, पर उसके नाम का संकल्प परमपूज्य गुरुदेव ने कुछ वर्षों पहले ही ले लिया था। इसीलिए उन्होंने पत्रिका की स्थापना का इतिहास उसका उद्देश्य बताते हुए 2000 लोगों को प्रथम प्रति भेजी थी-साथ ही उसमें एक भावभरा संदेश भी था कि यदि लोगों को यह प्रति पसंद आए तो वे अन्य पाँच व्यक्तियों तक भी इसे पहुँचाएँ। यदि ग्राहक बनना चाहें तो उन्हें जब सुविधा हो तब चंदा भेज दें। प्रत्येक पत्रिका का मूल्य था नौ पैसा, वार्षिक 1.50 रुपया ।


परमपूज्य गुरुदेव ने प्रारंभ से ही अखण्ड ज्योति पत्रिका का उद्देश्य पाठकों की साधनात्मक वृत्ति को जाग्रत करना रखा था। सन् 1940 के अगस्त के अंक में इसी भाव को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा-"हमारा विश्वास है कि अखण्ड ज्योति के पाठक कुछ-न-कुछ भजन, पूजन, साधना, अनुष्ठान करते होंगे। वे जैसा भी कुछ अपने विश्वास के कारण करते हों करें, परंतु एक साधना को करने के लिए हम उन्हें अनुरोधपूर्वक प्रेरित करेंगे कि वे दिन-रात में से कोई भी पंद्रह मिनट का समय निकालें और एकांत में शांतिपूर्वक सोचें कि वे क्या हैं? वे सोचें कि क्या वे उस कर्त्तव्य को पूरा कर रहे हैं, जो मनुष्य होने के नाते उन्हें सौंपा गया था। मन से कहिए कि यह निर्भीक सत्य वक्ता की तरह आपके अवगुण आपको साफ-साफ बताए ।


प्रारंभ के तेरह अंक परमपूज्य गुरुदेव ने आगरा से प्रकाशित किए, पर बाद में भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि मथुरा को उन्होंने अपना निवासस्थान बनाया। वहाँ पर उन्होंने प्रकाशन की सारी व्यवस्थाएँ नए सिरे से जुटाई। सारे संपर्क सूत्र नए सिरे से स्थापित करने पड़े, पर इतनी सारी प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद पत्रिका की छपाई व उसके भेजने के क्रम में उन्होंने एक दिन की भी देरी नहीं होने दी


मथुरा से प्रकाशित होने के कारण अखण्ड ज्योति के प्रारंभिक अंकों में मुखपृष्ठ पर भगवान कृष्ण युद्धभूमि में खड़े दिखाए गए। उसके पीछे का भाव शायद यह ही था कि अखण्ड ज्योति परिवार के सदस्य यह जान लें कि युद्धकालीन परिस्थितियों में भी वे महाकाल के संरक्षण में हैं। किन्हीं भी कठिनाइयों के बीच से गुजरते हुए परमपूज्य गुरुदेव के अखण्ड ज्योति पाठकों का परिवार 2 हजार सदस्यों से बढ़ते-बढ़ते करोड़ों तक जा पहुँचा।


उनकी संकल्पशक्ति का ही यह परिणाम था कि कुछ सौ हाथों से बढ़ते-बढ़ते अखण्ड ज्योति पत्रिका अनेकों के घर जा पहुँची। इस बात का उन्हें पूर्व से ही आभास था कि यह यात्रा सरल नहीं होगी और संभवतया इसीलिए उन्होंने शुरू में ही इस बात को अखण्ड ज्योति पत्रिका में लिख दिया कि


सुधा बीज बोने से पहिले

कालकूट पीना होगा |

पहिन मौत का मुकुट

विश्वहित मानव को जीना होगा।

विश्व का हित सुरक्षित रखने के लिए ही उन्होंने अपने जीवन को एक दुर्द्धर्ष तपस्वी की तरह जिया। इसीलिए उन्होंने उन्हीं दिनों उनके द्वारा लिखी गई एक अन्य कविता में लिखा- "मिट्टी की है देह-दीप जलना मेरा इतिहास है।" अखण्ड ज्योति पत्रिका को परमपूज्य गुरुदेव ने एक दैवी चेतना के आवाहन के रूप में प्रारंभ किया था, जिसका उद्देश्य एक ही था कि मनुष्य के भीतर उपस्थित देवत्व की संभावना को जाग्रत किया जा सके और इस धरती को ही स्वर्गलोक में बदला जा सके। इसीलिए अखण्ड ज्योति की शुरुआत की पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार से थीं-


संदेश नहीं मैं स्वर्गलोक का लाई।

इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आई।


जिन दिनों में संपूर्ण विश्व युद्धों की विभीषिका को झेल रहा था, उन्हीं दिनों में परमपूज्य गुरुदेव ने 100 वर्ष बाद अर्थात सन् 2042 तक नवयुग की परिस्थितियों के अवतरण के संकेत देना शुरू कर दिया था और यह लिखना आरंभ कर दिया था कि ये विभीषिका की परिस्थितियाँ शीघ्र सिमट जाएँगी। सन् 1947 के बाद परमपूज्य गुरुदेव ने पाठकों को सच्चे अध्यात्म के विषय में बताना आरंभ कर दिया, ताकि गायत्री का तत्त्वज्ञान जन-जन तक पहुँचे और वे भटकावे में अपने जीवन को निरर्थक न गँवाएँ।


कालांतर में परमपूज्य गुरुदेव ने अखण्ड ज्योति पत्रिका को वैज्ञानिक अध्यात्मवाद जैसे महत्त्वपूर्ण विषय के प्रतिपादन का संवाहक भी बनाया और गंभीर साधकों के लिए गायत्री की उच्चस्तरीय साधनाएँ' नाम से एक स्तंभ का प्रकाशन भी आरंभ किया। सही पूछा जाए तो अखण्ड ज्योति पत्रिका न केवल परमपूज्य गुरुदेव के एकाकी संघर्ष का सुफल है, बल्कि एक ऐसे दैवी प्रवाह का प्रतीक भी है; जिसके माध्यम से युग परिवर्तन की पृष्ठभूमि यहाँ तैयार की जा रही थी। वर्तमान परिस्थितियों में जब कुछ वैसी ही समस्याएँ हमारे सम्मुख हैं; जैसी कभी परमपूज्य गुरुदेव के सम्मुख अखण्ड ज्योति प्रारंभ करते समय थीं तो यह सामयिक हो जाता है कि शांतिकुंज को प्राण देने वाली इस पत्रिका को जन-जन तक पहुंचाने के माध्यम हम लोग बन सकें।


अखण्ड ज्योति, जनवरी 2022

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