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आदर्श वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई


झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई भी इसी भारतीय स्वतंत्रता के लिए आरंभ किये गये रण-यज्ञ की एक विशिष्ट 'होता' थी। यह नहीं कहा जा सकता कि इस योजना में गढ़ने में भी उनका हाथ था या नहीं ? अंग्रेज इतिहासकारों ने तो उनको भी इस घटना का उत्तरदायी बतलाया है और भारतीय लेखकों के मतानुसार उनको संयोगवश ही इसमें भाग लेना पड़ा। कुछ भी हो, जब एक बार मैदान में आ गई, तो उन्होंने वह जौहर दिखलाये, जिसकी शत्रु-मित्र को किसी को आशा नहीं थी और तो क्या अंग्रेजी सेना के एक बड़े सेनापति सर ह्यूरोज ने, जिन्होंने झाँसी, कालपी और ग्वालियर में विद्रोहियों की बड़ी-बड़ी सेनाओं को हराकर फिर से अंग्रेजों की सत्ता कायम की थी और जिनसे घोर युद्ध करते हुए ही रानी लक्ष्मीबाई ने आत्मोत्सर्ग किया था, इनकी वीरता की मुक्त कंठ से सराहना की थी। उन्होंने इस संबंध में अपनी घोषणा में जो शब्द कहे थे, वे आज तक इतिहास में अमर बने हुये हैं। उन्होंने लिखा था "शत्रु दल (भारतीय विद्रोहियों) में अगर कोई सच्चा मर्द था तो वह झाँसी की रानी ही थी।"


सर ह्यूरोज के इस कथन को पढ़, सहसा मुख से निकल जाता है - "रहिमन साँचे सूर को बैरिहु करें बखान।" लक्ष्मीबाई झाँसी, कालपी और ग्वालियर तीनों ही स्थानें में सर ह्यूरोज की सेना से खूब लड़ी और उसके नाकों चने चबवा दिये। सच पूछा जाय तो अन्य सब विद्रोही- सरदार अंग्रेजी सेना के सामने एक भी जगह नहीं ठहरे पर लक्ष्मीबाई ने उसका डटकर मुकाबला किया और बार-बार बलवान् शत्रु का मुँह मोड़ दिया। वह तो एक तरफ उसके अल्प साधन और दूसरी ओर अंग्रेजों के पास नये-नये हथियारों का होना था, जिससे अंत में विजयश्री अंग्रेजी सेना को मिली पर उस अकेली ने जिस प्रकार सैकड़ों सैनिकों का मुकाबिला करके बीसियों को धाराशायी किया उसका उदाहरण उस युद्ध में दूसरा नहीं मिला। इसी से प्रभावित होकर, यूरोप के प्रसिद्ध रणक्षेत्रों के विजयी सेनापति और वीरों की सच्ची कदर करने वाले सर ह्यूरोज ने इस प्रकार के उद्गार प्रकट किये थे।


किसी संस्कृत सुभाषित ग्रंथ में एक श्लोक दिया गया है कि सिंह चाहे दो-चार वर्ष ही जीवित रहे, पर उसके शौर्य की प्रत्येक प्रशंसा करता है। पर कौआ सौ वर्ष जीने पर भी सिवाय जूँठन के और किसी श्रेष्ठ वस्तु का अधिकारी नहीं होता। यह उक्ति रानी लक्ष्मीबाई के जीवन पूर्णतः लागू होती है। यद्यपि वह केवल २४ वर्ष जीवित रही और इसमें भी जनता के सामने उसकी कार्यवाही केवल एक वर्ष के शासनकाल में प्रकट हुई। पर इसी बीच में उसने ऐसे काम कर दिखाये, जिनकी याद आज २४६ वर्ष बीत जाने पर भी ताजा बनी है और लाखों स्त्री-पुरुषों को प्रेरणा दे रही है। उसकी प्रशंसा केवल इस बात के लिए नहीं है कि वह शस्त्र संचालन में बड़ी निपुण थी अथवा अपूर्व साहसी थी। उससे बढ़कर तलवार चलाने वाले युद्ध क्षेत्र के बीच अकेले लड़ने वाले हजारों क्षत्रिय और राजपूत पिछले दो-चार सौ वर्ष में हो चुके हैं, उसकी विशेष प्रशंसा इस बात में है कि उसने आरंभ में से ही अपने सामने आने वाले प्रत्येक कर्तव्य को निःस्वार्थ भाव से पूरा किया और अंत में मातृभूमि के प्रति अपने कर्तव्य को पालन करने में स्वेच्छापूर्वक प्राणोत्सर्ग कर दिया है। उनको अपनी अंतिम विजय की तो आशा थी नहीं और इधर विद्रोह के प्रमुख संचालकों की योग्यता और महत्त्वकांक्षायें उनको इस महान् अभियान के लिए अपर्याप्त जान पड़ीं, इसलिए उन्होंने सर्वश्रेष्ठ मार्ग यहीं समझा कि इस विकट अवसर पर ही अपना बलिदान करके तत्कालीन और भावी देशवासियों के सम्मुख एक प्रेरणाप्रद उदाहरण उपस्थित कर दें। एक ऐसे जीवन की सराहना और कामना कौन नहीं करेगा जिसने जीवित और मृत दोनों अवस्थाओं में मित्र, शत्रु और उदासीन सबकी प्रशंसा पाई हो और अंतिम क्षण तक कर्तव्यपालन पर आरूढ़ रहकर पूर्ण आत्म-संतोष प्राप्त किया हो।


-पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

पुस्तक: आदर्श वीरांगना- रानी लक्ष्मीबाई

 
 
 

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